लेख-निबंध >> क्रान्ति के नक्षत्र क्रान्ति के नक्षत्रविनायक दामोदर सावरकर
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क्रान्ति के नक्षत्र....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सम्पादकीय निवेदन
इस लेख-संग्रह में सम्पादित सामग्री जिन घटनाक्रमों या विचार सूत्रों पर आधारित है। उन्हें एक शताब्दी से अधिक हो रहा है। जिन पात्रों के माध्यम से इस वैचारिक और राजनैतिक संघर्ष की भूमिका बनी वे सभी कालग्रस्त हैं। किंतु यदि उन विचारों एवं उन विभूतियों के प्रतिपादित सिद्धान्तों में दम-खम था, तो उनको आज की पीढ़ी कितना ग्राह्य एवं अनुकरणीय माने इसका मूल्यांकन होना आवश्यक है।
पाठकों को यह समझना है, कि क्रांतिकारी गतिविधियों का अधिकांश भाग भूमिगत (Underground) होता था, वीर सावरकर के लन्दन प्रवास के समय एक साथ 1908 में तो ऐसी विस्फोटक रोमांचकारी घटनायें हुई कि न वहाँ-इण्डिया हाऊस में ‘अभिनव भारत क्रांतिदल’ का कोई सदस्य रहा-न उन विख्यात क्रान्तिकारियों की विचार सामग्री, जो एक के बाद एक जब्त होती गई। कई प्रसंगों में पाठकों को यह पढ़ने को मिलेगा। यहाँ-अंडमान से लौटने पर भी वीर सावरकर की रचनायें अंग्रेजी सरकार जब्त करती रही। उसी रत्नागिरि कांड की अधिकांश सामग्री इस में संकलित है। उसके साथ क्रांति-पक्ष के पक्षधर वीर सावरकर ने क्रांति को हिंसक या अतिवादी, अराजकतावादी नहीं स्वीकार किया है। उनका मत है कि साम्राज्यवादी शोषक के अन्याय का प्रतिवाद करने वाले ऐसे व्यक्तियों की चरित्र-हत्या का षड्यन्त्र है।
वीर सावरकर का क्रांतिदर्शन बड़ा सारगर्भित है। वह भारतीय हिंदू दर्शन से प्रभावित है। उनका यह मत गीता से प्रेरित लगता है कि शांति स्थापना नहीं करनी। हमें अन्याय को समाप्त करके न्याय की स्थापना करनी है, शांति शब्द न्याय की तुलना में छोटा है। न्याय की स्थापना होते ही शांति चिरस्थायी हो जायेगी। किंतु शांति स्थापना से आवश्यक नहीं कि न्याय की स्थापना हो या न्याय उपलब्ध हो। यह उल्लेख करने का हमारा अभिप्राय यह है कि इसमें वीर सावरकर के क्रांतिदर्शन की मीमांसा बड़े तर्कसंगत ढंग से प्रतिपादित हुई है। क्योंकि सावरकर एक ऐसा क्रांति-चिन्तक है जो विचारों का समन्वय नहीं मानता। उसका मत यह है कि शीत-युद्ध परस्पर विरोधी तत्वों में चलता आया है।
रत्नागिरि में स्थान-बद्धता (नजरबन्दी) के लम्बे अर्से में उनकी लेखनी-कथनी पर सरकारी प्रतिबंध था, किंतु वह क्रांति-नायक ज्वालामुखी के समान धधकता रहा। इस लावे को कोई न कोई रास्ता मिलना ही था। तब आर्य नेता स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान की घटना हुई। वीर सावरकर की दृष्टि में यह साधारण घटना नहीं थी। उसके दूरगामी प्रभावों एवं प्रतिक्रियाओं का पूर्वाभास वीर सावरकर को हुआ था, और उनकी पावन स्मृति में ‘श्रद्धानन्द’ नाम की पत्रिका के प्रकाशन की व्यवस्था की गई। पत्रिका के सम्पादक उनके अनुज थे। उन क्रांतिकारों त्रिमूर्ति भाईयों में बड़े बाबा सावरकर, स्वयं वीरजी एवं छोटे डा. नारायण राव सावरकर थे। सभी जानते थे कि विचार वीर सावरकर के हैं जो समकालीन क्रान्तिकारियों का संस्मरणात्मक-शब्द-चित्र सप्रसंग देकर क्रान्ति-पक्ष को उजागर करते हैं। तब अंग्रेज सरकार को यह सहन नहीं हुआ। 1924 से 1930 तक इस पत्रिका के पहले तो कुछ अंक जब्त किये, फिर पूरी पत्रिका ही शासन ने बन्द कर दी। उसी में प्रकाशित यह निबन्ध आज अपने ढंग के अनूठे दस्तावेज हैं। इसके अतिरिक्त क्रान्ति सम्बन्धी विचार-सूत्र एवं विश्वविख्यात क्रान्ति-निबन्ध ‘मैजिनी के आत्म-चरित्र की भूमिका’ (1907 में उनका लंदन में जब्त निबन्ध) भी इसी संग्रह के उपयुक्त समझा गया है।
हमारा मत है कि यह सभी बड़ी रोचक एवं पठनीय सामग्री बन गईं है।
पाठकों को यह समझना है, कि क्रांतिकारी गतिविधियों का अधिकांश भाग भूमिगत (Underground) होता था, वीर सावरकर के लन्दन प्रवास के समय एक साथ 1908 में तो ऐसी विस्फोटक रोमांचकारी घटनायें हुई कि न वहाँ-इण्डिया हाऊस में ‘अभिनव भारत क्रांतिदल’ का कोई सदस्य रहा-न उन विख्यात क्रान्तिकारियों की विचार सामग्री, जो एक के बाद एक जब्त होती गई। कई प्रसंगों में पाठकों को यह पढ़ने को मिलेगा। यहाँ-अंडमान से लौटने पर भी वीर सावरकर की रचनायें अंग्रेजी सरकार जब्त करती रही। उसी रत्नागिरि कांड की अधिकांश सामग्री इस में संकलित है। उसके साथ क्रांति-पक्ष के पक्षधर वीर सावरकर ने क्रांति को हिंसक या अतिवादी, अराजकतावादी नहीं स्वीकार किया है। उनका मत है कि साम्राज्यवादी शोषक के अन्याय का प्रतिवाद करने वाले ऐसे व्यक्तियों की चरित्र-हत्या का षड्यन्त्र है।
वीर सावरकर का क्रांतिदर्शन बड़ा सारगर्भित है। वह भारतीय हिंदू दर्शन से प्रभावित है। उनका यह मत गीता से प्रेरित लगता है कि शांति स्थापना नहीं करनी। हमें अन्याय को समाप्त करके न्याय की स्थापना करनी है, शांति शब्द न्याय की तुलना में छोटा है। न्याय की स्थापना होते ही शांति चिरस्थायी हो जायेगी। किंतु शांति स्थापना से आवश्यक नहीं कि न्याय की स्थापना हो या न्याय उपलब्ध हो। यह उल्लेख करने का हमारा अभिप्राय यह है कि इसमें वीर सावरकर के क्रांतिदर्शन की मीमांसा बड़े तर्कसंगत ढंग से प्रतिपादित हुई है। क्योंकि सावरकर एक ऐसा क्रांति-चिन्तक है जो विचारों का समन्वय नहीं मानता। उसका मत यह है कि शीत-युद्ध परस्पर विरोधी तत्वों में चलता आया है।
रत्नागिरि में स्थान-बद्धता (नजरबन्दी) के लम्बे अर्से में उनकी लेखनी-कथनी पर सरकारी प्रतिबंध था, किंतु वह क्रांति-नायक ज्वालामुखी के समान धधकता रहा। इस लावे को कोई न कोई रास्ता मिलना ही था। तब आर्य नेता स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान की घटना हुई। वीर सावरकर की दृष्टि में यह साधारण घटना नहीं थी। उसके दूरगामी प्रभावों एवं प्रतिक्रियाओं का पूर्वाभास वीर सावरकर को हुआ था, और उनकी पावन स्मृति में ‘श्रद्धानन्द’ नाम की पत्रिका के प्रकाशन की व्यवस्था की गई। पत्रिका के सम्पादक उनके अनुज थे। उन क्रांतिकारों त्रिमूर्ति भाईयों में बड़े बाबा सावरकर, स्वयं वीरजी एवं छोटे डा. नारायण राव सावरकर थे। सभी जानते थे कि विचार वीर सावरकर के हैं जो समकालीन क्रान्तिकारियों का संस्मरणात्मक-शब्द-चित्र सप्रसंग देकर क्रान्ति-पक्ष को उजागर करते हैं। तब अंग्रेज सरकार को यह सहन नहीं हुआ। 1924 से 1930 तक इस पत्रिका के पहले तो कुछ अंक जब्त किये, फिर पूरी पत्रिका ही शासन ने बन्द कर दी। उसी में प्रकाशित यह निबन्ध आज अपने ढंग के अनूठे दस्तावेज हैं। इसके अतिरिक्त क्रान्ति सम्बन्धी विचार-सूत्र एवं विश्वविख्यात क्रान्ति-निबन्ध ‘मैजिनी के आत्म-चरित्र की भूमिका’ (1907 में उनका लंदन में जब्त निबन्ध) भी इसी संग्रह के उपयुक्त समझा गया है।
हमारा मत है कि यह सभी बड़ी रोचक एवं पठनीय सामग्री बन गईं है।
- भागीरथ प्रवासी ‘सम्पादक’
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